भले ही विभिन्न सभ्यता-संस्कृति का सम्मिलन-संघर्ष और उनका राजनीतिक उपयोग-दुरुपयोग देश-दुनिया के लिए कोई नई बात नहीं है, लेकिन रूस-चीन के चक्रब्यूह में फंसा अमेरिका अब जो भू-राजनीतिक खेल अब्राहमिक ब्रदरहुड की आड़ में खेलने की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है, वह यदि सफल होता है तो प्राचीनकाल लीन महाभारत, मध्ययुगीन धर्मयुद्ध, आधुनिक युगीन प्रथम-द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एक और बड़ा युद्ध दरवाजे पर दस्तक देने वाला है।
संभव है कि रूस-यूक्रेन युद्ध को ही निकट भविष्य में एक और बड़ा विस्तार मिल जाए। हाल ही में भारत के खिलाफ पाकिस्तान को उकसाने की जो उसकी पुरानी रणनीति पुनः प्रकाश में आई है, उसमें चीन-भारत ने यदि रूसी प्रभाववश आपसी समझदारी न दिखाई होती, तो अमेरिका अपने क्षुद्र चाल सफल हो जाता! इसलिए सवाल उठता है कि “अब्राहमिक भाईचारे” के मुकाबले “हान-हिंदू भाईचारे” को मजबूत करने में जिनफिंग-मोदी अपनी भावी भूमिका निभाएंगे, या फिर अपनी भू-राजनीतिक अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए भावी परोक्ष अमेरिकी रणनीति के समक्ष घुटने टेक देंगे, यक्ष प्रश्न है!
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कहना न होगा कि किसी भी देश या उसके मित्र राष्ट्र में सभ्यता-संस्कृति की चिंता और उन्हें पुनर्विकसित करने-करवाने वाली भविष्य की योजना, उसपर आधारित अद्यतन सोच-समझ स्पष्ट होनी चाहिए। कहने का तातपर्य यह कि ऐसे महत्वपूर्ण देशों को दूर की सोच रखनी चाहिए। इसलिए तो एक तरफ जहां अमेरिका जैसा मजबूत राष्ट्र भी भावी रूसी-चीनी-भारतीय महात्रिकोण (ब्रिक्स संगठन के रणनीतिकार पार्टनर देश) का मुकाबला करने के लिए नाटो के अलावा पाकिस्तान-सऊदी अरब-कतर तथा ईरान के साथ अपने याराना को मजबूत कर रहा है।
खास बात यह है कि अमेरिका यह सबकुछ तब कर रहा है जबकि इनमें से कुछ देशों से वह खार खाए रहता है। जैसे अमेरिका-ईरान यदि एक दूसरे के करीबी बनते हैं तो यह कितने आश्चर्य की बात होगी। अमेरिका-इजरायल यदि अब्राहमिक ब्रदरहुड के नाम पर अपने मतभेद भुला देते हैं तो यह कितने आश्चर्य की बात होगी। हालांकि, इसी प्रकार की समझदारी यदि भारत-चीन भी दिखा दें तो कोई हैरत की बात नहीं होगी। पूर्वी एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया के विभिन्न देशों में भी ऐसी रणनीतिक समझदारी विकसित करवाई जा सकती है, क्योंकि सवाल सभ्यता-संस्कृति की पुनररक्षा से जुड़ा हुआ है।
देखा जाए तो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की जो हर ब्रेक के बाद बदलती कूटनीति है, वह यह स्पष्ट रूप से बतलाती है कि निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए मौकापरस्त अमेरिका निकट भविष्य में बहुत कुछ रणनीतिक फेरबदल इसलिए करने वाला है, क्योंकि रूस से भारत को तोड़ने और चीन से भारत को भिड़ाने की जो उसकी सोची समझी चाल थी, मोदी प्रशासन ने उसकी हवा निकाल दी है। दक्षिण चीन सागर से लेकर तिब्बत, कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश के अलावा पाकिस्तान-बांग्लादेश-म्यांमार जैसी थोपी हुई कूटनीतिक मुसीबतों से पार पाने की कला अब भारत सीख चुका है, वो भी बिल्कुल अपने दम पर।
यही वजह है कि हथियार लॉबी के इशारों पर थिरकने वाला अमेरिका और उसका राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अब अबू धाबी में शेख के साथ ‘अब्राहमिक फ़ैमिली हाउस’ घूमने पहुंचा है, जो कि काफी बड़ी बात है। इसलिए इसके इशारों को समझदारी पूर्वक लोगों को समझाना चाहिए। बताते चलें कि भले ही अपने पहले चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप ने मुसलमानों के खिलाफ तेवर दिखा कर काफी लोकप्रियता पाई थी। लेकिन 2016 में राष्ट्रपति बनते ही उन्होंने जिस प्रकार से कुछ इस्लामी देशों के लोगों की आवाजाही रोकी और आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट के खिलाफ अमेरिकी सेना को झोंका, उसे नेस्तनाबूद किया, वह गौर करने वाली बात थी।
हालांकि तब भी वे सऊदी अरब और कतर पर फिदा थे, मेहरबान रहते थे। उन्होंने अपनी चतुराई से एक ओर यहूदी देश इजराइल के नेतन्याहू को साधा तो दूसरी ओर उसके धुर विरोधी सऊदी अरब और कतर को महत्व दिया। वहीं, वर्ष 2017 में राष्ट्रपति ट्रंप जब अपनी पहली विदेश यात्रा पर रियाद गए तो वह एक नए गठबंधन की शुरुआत थी। क्योंकि उन्होंने उस यात्रा में पचास से अधिक मुस्लिम देशों के नेताओं को संबोधित किया। इसप्रकार ईरान के खिलाफ साझा मोर्चा बनाने और अरब बिरादरी को नई दिशा देने की जमीन उन्होंने बनाई।
हालांकि, शेष दुनिया तब हैरान थी जब वर्ष 2020 में अमेरिकी मध्यस्थता से संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ने इज़राइल के साथ ऐतिहासिक ‘अब्राहमिक ब्रदरहुड समझौते’ पर दस्तखत किए। बता दें कि 1979 में मिस्र और 1994 में जॉर्डन ने भी इज़राइल को कूटनीतिक मान्यता भी दी है। सम्भवतया राष्ट्रपति ट्रंप के इसी तेवर पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी फिदा थे, लेकिन अपने स्वभाव के मुताबिक बहुत ही फूंक फूंक कर वो कदम रख रहे थे।
वहीं, अब मौजूदा हालात पर भी गौर फरमाइए। एक तरफ इजरायल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू फिलस्तीनी मुसलमानों को तबाह करके गाजा से भगा दे रहे हैं। इसके बावजूद कतर, सऊदी अरब, खाड़ी देशों ने नेतन्याहू पर वरदहस्त रखे हुए डोनाल्ड ट्रंप का दिल खोल कर स्वागत किया है। ऐसा सिर्फ इसलिए कि अरब-खाड़ी देश अमेरिका से वह सब कुछ ले रहे हैं, जो उन्हें चाहिए और अमेरिका को भी वह सब कुछ दे रहे हैं, जो डोनाल्ड ट्रंप चाहते हैं।
इस प्रकार हम आप कल्पना नहीं कर सकते हैं कि एआई के वैश्विक पैमाने के डाटा सेंटर की स्थापना से लेकर बेइंतहां अमेरिकी हथियारों की खरीद के साथ पश्चिमी सभ्यता की कसौटियों के विश्वविद्यालयों, बौद्धिक संस्थानों, मीडिया, म्यूजियम, फैशन याकि दुनिया की सॉफ्ट और हार्ड पॉवर बनने की जैसी प्लानिंग सऊदी अरब, कतर, यूएई की धुरी पर गुल खिला रही है, वह कमोबेश क्षेत्रीय व वैश्विक दीर्घकालीन उद्देश्यों में अभूतपूर्व है।
कहने का अभिप्राय यह कि इनकी वित्तीय ताकत की पहले से ही एक धुरी है। ऐसे में यदि इनके साथ अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप के कारण इजराइल से अरब देशों का सद्भाव बना रहा तो पृथ्वी का यह इलाका भविष्य में उस महाशक्ति क्षेत्र का पर्याय हो सकता है, जो रूस, चीन, भारत और यूरोपीय संघ में शामिल कई महत्वपूर्ण देशों को पछाड़ता हुआ सबसे आगे होगा। इसलिए इन देशों को अभी से चौकस होना होगा। एकजुटता दिखानी पड़ेगी।
ऐसे में स्वाभाविक सवाल है और आप समझ-बूझ भी विकसित कर सकते हैं कि तब कतर, सऊदी अरब, अबू धाबी, दुबई आदि देशों का बड़ा प्रभाव वाला क्षेत्र कौन सा होगा? तो हम यहां पर स्पष्ट कर दें कि सबसे पहले ये दुनिया की मुस्लिम जमात के मसीहा और संरक्षक होंगे। साथ ही एशिया खासकर दक्षिण एशिया इनकी मनमाफिक कॉलोनी यानी कि दिलचस्पी वाला महत्वपूर्ण बाजार होगा। जिसमें पाकिस्तान उनकी एटमी महाशक्ति होगी और भारत पर इनका वित्तीय-आर्थिक कब्जा होगा।
ऐसा शायद इसलिए भी सम्भव हो पाएगा कि हम हिंदुओं का दिमाग छोटा और कूपमंडूक की मानसिकता वाला है। वहीं मोटामोटी अध्ययन करे तो यह स्पष्ट है कि चीन के बाद अरब-खाड़ी देशों में ही हमारा आर्थिक टेटुआ ज्यादा फंसता हुआ है। जिसकी कोई काट फिलवक्त हमारे पास नहीं है।
यही वजह है कि भारत सरकार के मातहत यह अध्ययन होना चाहिए कि भारत के शेयर बाजार से लेकर अंबानी, अडानी जैसे कथित देशी जगत सेठों ने अरब-खाड़ी देशों से कितनी पूंजी लेकर उन्हें कितना मुनाफा कमा कर दे रहे हैं या फिर ऐसा करने का वादा किया हुआ है? क्योंकि मुझे मिली यह जानकारी हैरान कर गई कि मुकेश अंबानी के रिलायंस ने रिटेल दुकानदारी के धंधे में भी कतर के सार्वभौम फंड का पैसा निवेश किया हुआ है।
कहने का तातपर्य यह कि जैसे चीन ने किया है, ठीक वैसे ही अऱब-खाड़ी देशों ने भारत में अपना तंत्र बना लिया है। दो टूक शब्दों में कहें तो ये भारत के अडानी-अंबानी आदि एकाधिकारी सेठों को एजेंट बना कर उनके जरिए भारत के बाजार पर कब्जा रखने-बनाने की रणनीति में मशगूल हैं। वहीं मेरा विश्वास है कि निश्चित रूप से ये ऐसा पाकिस्तान, बांग्लादेश में भी कर रहे होंगे। क्योंकि पाकिस्तान का शरीफ घराना तो वैसे ही पूरी तरह बिकाऊ है, जैसे हमारे धंधेबाज बनिया (जाति नहीं प्रवृति) हैं।
अब पुनः मुद्दे की बात पर लौटते हैं, क्योंकि जो विषयांतर हो गया, वह आपको समझाने के लिए करना जरूरी लगा। इसलिए अब बात पते की करते हैं। वह यह कि डोनाल्ड ट्रंप, नेतन्याहू और सऊदी अरब, कतर, अबू धाबी के शेख वह कुछ भून-पका रहे हैं, जिससे यहूदी, ईसाई और इस्लाम का आपसी भाईचारा बने।
यदि आबादी पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि दुनिया की कोई 8.1 अरब लोगों की आबादी में से इन तीन धर्मों की 56 प्रतिशत आबादी में आपसी भाईचारा बन जाए तो ये वैश्विक बहुमत में होंगे। क्योंकि दुनिया में अब्राहमिक परंपराओं के आस्थावान (ईसाई 31 प्रतिशत, मुसलमान 25 प्रतिशत और यहूदी 0.2 प्रतिशत) 56 प्रतिशत से अधिक है। देखा जाए तो इन तीन धर्मों का कोई सौ से अधिक देशों में बोलबाला है। ये हथियार, तकनीक, ईंधन और वित्त के मामलों में निर्णायक स्थिति हैं, इसलिए दुनिया का रुख अपनी ओर मोड़ सकते हैं।
अब सुलगता हुआ सवाल है कि तब शेष विश्व में बाकी कौन बचता है? तो जवाब यही होगा कि हान सभ्यता के घमंड में जीने वाले चाइनीज या हिंदू सभ्यता के वसुधैव कुटुंब कम के संस्कारों में जीने वाले हम हिंदू। बाकी में स्लाविक रूसी तथा छोटे समूहों में बौद्ध, अफ्रीकी, लातीनी अमेरिका के छोटे-छोटे कबीलाई समूह हैं। इसलिए सोचनीय सवाल है क्या सचमुच यहूदी, ईसाई और मुसलमान आपसी भाईचारे में वैश्विक राजनीति की रणनीति अपना सकते हैं? तो यहां पर यह स्पष्ट करना जरूरी है कि एक ही पितृपुरुष अब्राहम के आध्यात्मिक वंश से यहूदी, ईसाई और इस्लाम जन्मे हैं। लेकिन मानव सभ्यता के इतिहास में इन तीनों के बीच ही धर्म के नाम पर सर्वाधिक खून की नदियां बही हैं।
यदि इतिहास खंगाला जाए तो यरूशलम के पत्थरों से लेकर कर्बला की रेत तक, और 9/11 से लेकर गाज़ा तक की हर त्रासदी के लिए ये तीन धर्म ही जिम्मेवार हैं। लेकिन ये धर्म क्योंकि तलवार के दम से फैले हुए हैं तो आज सबसे बड़ी जनसंख्या, प्रभाव और भूगोल पर भी कब्जा किए हुए हैं। इस लिहाज से अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का 2016 का एक भाषण गौरतलब है। जब वे 2017 में सऊदी अरब गए तो उन्होंने वहां पर पहुंच कर कहा कि, ‘हम यहा भाषण देने नहीं बल्कि साझेदारी देने आए हैं।’
फिर 2019 में पोप फ्रांसिस और काहिरा की अल-अजहर के ग्रैंड इमाम अहमद अल तायेब ने अबू धाबी में मिलकर ‘मानव भाईचारे के दस्तावेज’ पर दस्तखत करते हुए कहा कि, ‘आस्था एक आस्थावान को दूसरों में भाई या बहन देखने की दृष्टि देती है और सहारा देने और प्रेम के लिए प्रेरित करती है’। उस दस्तावेज की पृष्ठभूमि में ही 2020 के आते-आते अब्राहमिक समझौते में यूएई, बहरीन, मोरक्को और सूडान जैसे इस्लामी देशों ने इज़राइल से हाथ मिला लिया।
फिर अबू धाबी में एक ही परिसर में मस्जिद, चर्च और यहूदी सिनेगॉग की नई इमारत अब्राहमिक फ़ैमिली हाउस बनी। जहां एक ही परिसर में मस्जिद (इमाम अल तायेब मस्जिद), चर्च (सेंट फ्रांसिस चर्च) और सिनेगॉग (मूसा बेन मेमोन सिनेगॉग) का निर्माण भू राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और भौगोलिक महत्व का मसला है। इसके मार्फ़त दुनिया को यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि अब्राहम के बेटे एक छत, एक इलाके में भाईचारे से रहे हैं और रह सकते हैं, चाहे उनके बीच का इतिहास कितना भी रक्तरंजित क्यों न रहा हो।
वहीं, यह सब कुछ तब हो रहा है जब इजराइल बनाम हमास के संघर्ष में गाजा को मुसलमानों से खाली कराने की कोशिश जारी है! देखा जाए तो ट्रंप ने एक तरह से इस यात्रा में नेतन्याहू को मनमानी की छूट दिलाई है। एक तरह से सउदी अरब, कतर और अबू धाबी की रीति-नीति में उग्रवादी इस्लामी संगठनों (ईरान, यमन भी) को इजराइल व अमेरिका के जरिए निपटने देने की रणनीति दो टूक है। तभी तो इजराइल से संबंधों में यथास्थिति रखी हुई है। वही सऊदी अरब ने अमेरिका को बेइंतहां हथियार खरीद के ऑर्डर के साथ वहां रिकॉर्ड तोड़ निवेश का फैसला लिया है।
वहीं, हैरानी की बात यह है कि जो सऊदी अरब के प्रिंस ने सीरिया में उभरे नए नेता से ट्रंप की मुलाकात कराई और अमेरिका ने तुरंत सीरिया के खिलाफ लगी पांबदियों को हटाने की घोषणा की। उससे जाहिर है कि सऊदी अरब, कतर, अबू धाबी, यूएआई आदि चुपचाप वह राजनीति करते हुए प्रतीत हो रहे हैं, जिसमें वे अपनी अमीरी, विकास और दुनिया भर की बुद्धि, ज्ञान-विज्ञान, तकनीक को अपना कर, अपने बौद्धिक-वैचारिक विमर्श तथा नैरेटिव से अपनी नई विशिष्ट वैश्विक इमेज और धमक स्थापित करें। इसमें कतर अग्रणी है। उसी ने ट्रंप के पहले कार्यकाल में तालिबान का अमेरिका से करार कराया था। इस बार भी कतर ने ही डोनाल्ड ट्रंप से पाकिस्तान की केमिस्ट्री बनवाई है।
ऐसे में स्वाभाविक सवाल उपजता है कि तो क्या यह माना जाए कि 1993 का सैमुअल हटिंगटन की ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ का सिनेरियो फिजूल साबित होना है? उनकी थ्योरी थी कि अगला वैश्विक संघर्ष विचारधारा या अर्थव्यवस्था से नहीं भड़केगा बल्कि इस्लामी और पश्चिमी दुनिया के बीच, धर्मों व सभ्यताओं में होगा। लेकिन ट्रंप के दौर में तो यह सबकुछ उल्टा होता दिखता है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि कभी ईरान के खिलाफ, कभी चीन के डर से और कभी कभी अपने-अपने स्वार्थ में अमेरिका, इज़राइल और इस्लामी खाड़ी देश जिसमें कुछ गुपचुप और कुछ बेबाकी से साथ एक-दूसरे के साथ आते दिखाई दे रहे हैं। जबकि तीनों धर्म, जो कभी एक-दूसरे के खून के प्यासे रहे, अब साझा ‘आस्था’ और ‘अर्थशास्त्र’ के तकाजे में सुर बदलते दिख रहे हैं।
हालांकि अब तक यही समझा जा रहा था कि ईरान के सहारे रूस, पाकिस्तान के सहारे चीन और तुर्की के सहारे रूस-चीन दोनों अरब देशों में अमेरिका को नियंत्रित किए हुए हैं, लेकिन नई अमेरिकी रणनीति की सफलता के बाद ये सारे सम्बन्ध धराशायी रह जाएंगे। क्योंकि तब अब्राहमिक ब्रदरहुड सामने आ जाएगा।
इस लिहाज से यह तय मानें कि यदि ऐसा होता है तो यह, अब्राहमिक भाईचारे में अमेरिका, अरब-खाड़ी देशों और इज़राइल का एक ऐसा घातक त्रिकोण बनेगा, जो सबसे पहले अमेरिकी अभिरुचि के मुताबिक विस्तारवादी रूस व चीन की मुश्किल तो बढ़ायेगा ही, साथ ही हिंदुओं के लिए भी किसी खतरे की घंटी से कम नहीं होगी, क्योंकि तब पाकिस्तान-बांग्लादेश के पक्ष में अब्राहमिक ब्रदरहुड खड़ा हो जाएगा।
लेकिन वैश्विक दुनिया दारी में तो भारत न तीन में है और न तेरह में है। क्योंकि वह गुटनिरपेक्ष है या यूं कहें कि विश्व की गम्भीर राजनीति में भी वह बिना पैंदे के लुढ़कता लोटा मानिंद है जो कब किधर लुढ़क जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। कारण कि जब यह देश अडानी-अंबानियों के स्वार्थों, पैसे की भूख में बुरी तरह उलझ गया है तो सब कुछ राम भरोसे और तात्कालिकता में होगा।
इसके बावजूद हमारे कथित विश्वगुरूओं को कुछ तो सोचना चाहिए! खासकर अब्राहमिक ब्रदरहुड की मजबूत काट निकालनी चाहिए। क्योंकि यदि भूलोक में अब्राहमिक भाईचारा बना तो हान-हिंदू-स्लाविक सभ्यता का क्या होगा? यक्ष प्रश्न है। इसलिए अब्राहमिक भाईचारे के मुकाबले हान-हिंदू-स्लाविक भाईचारे को अपेक्षा से ज्यादा मजबूत करना जिनफिंग-मोदी-पुतिन की सामूहिक जिम्मेदारी है, अन्यथा सभ्यता के संघर्ष में उनकी पुरातन हान-हिंदू-स्लाव सभ्यता का क्या होगा? शेष दुनिया जवाब मांगेगी!
– कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक