सबके लिए चौंकाने वाले हैं जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव परिणाम के सियासी मायने

जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव 2024 के परिणाम एक बार फिर सबको चौंका दिए। यहां भाजपा की कसरत बेकार गई और कांग्रेस की फितरत नेशनल कांफ्रेंस के सहारे बाजी मार ले गई। कहने का तातपर्य यह कि ताजा चुनाव परिणाम से जहां एक ओर पाकिस्तान-चीन परस्त स्थानीय सियासत को हवा देने वाली कांग्रेस-नेशनल कांफ्रेंस के देशद्रोही एजेंडे को सुकून मिली है, वहीं सूबे में भारतीयता की अलख जगाने वाली भाजपा की राष्ट्रवादी सियासत के ऊपर चिंता की कुछ नई लकीरें खींच दी हैं, जिन्हें समय रहते ही मिटाने के कुछ और सकारात्मक प्रयत्न करने होंगे। 
राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि इस चुनाव परिणाम से वहां सक्रिय हिन्दू हित चिंतक समूहों की भी बेचैनी बढ़ी है, क्योंकि एक बार फिर वहां पर वही ‘अब्दुल्ला’ सरकार लौट रही है, जिसे जम्मू-कश्मीर के लिए हर मायने में अलग स्टेटस चाहिए। यानी धारा 370 की वापसी चाहिए। चूंकि काँग्रेस भी उसकी हां में हां मिला रही है, इसलिए केंद्र में सरकार बदलते ही उनकी जिद्द पूरी हो सकती है, हालांकि उनके लिए दिल्ली अभी दूर है। 

इसे भी पढ़ें: चुनाव नतीजे दिखाते हैं कि ज्यादातर लोग जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा हटाने के पक्ष में नहीं : उमर अब्दुल्ला

देखा जाए तो अनुच्छेद 370 हटाने के बाद जम्मू कश्मीर में पहली बार चुनाव हुए। जिसमें बीजेपी का जलवा कायम रहा, जबकि वह सरकार बनाने में सफल नहीं हो पाई। अतीत पर नजर डालें तो जम्मू-कश्मीर में आखिरी बार वर्ष 2014 में चुनाव हुए थे। वहां पर साल 2014 तक नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे। लेकिन 2014 के विधानसभा चुनाव के बाद वहां बीजेपी और पीडीपी गठबंधन ने सरकार चलाई। 
इसी बीच 2019 में वहां से अनुच्छेद 370 को हटाया गया और उसे केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। तब से वहां उपराज्यपाल शासन लागू है। उसके बाद अब जाकर साल 2024 में यहां चुनाव हुए, जिसमें तीन पीढ़ियों से यहां की सत्ता चला रहे अब्दुल्ला परिवार की नेशनल कॉन्फ्रेंस के गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला, जिसमें कांग्रेस भी शामिल है। घाटी में उनकी तूती बोलती है, इसलिए वहां उन्हें काफी सीटें मिलीं। हां, जम्मू के हिंदुओं ने बीजेपी को जमकर वोट दिया और अपनी राष्ट्रवादी भावनाओं का खुलकर इजहार किया।
राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि आतंक के साए के बीच 10 साल बाद फिर से जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनाव हुए। इससे पहले 2014 से 2024 के बीच 10 साल में जम्मू-कश्मीर का पूरा राजनीतिक परिदृश्य ही बदल गया। साल 2019 में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद कश्मीर घाटी की राजनीतिक हवा ही पूरी तरह से बदल गई। केंद्र शासित प्रदेश के नए स्वरूप में आने वाले इस राज्य में आखिरकार 2024 में फिर से विधानसभा चुनाव का बिगुल बजा। और जब जम्मू व कश्मीर के चुनाव परिणाम आए तो नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन को स्पष्ट जनादेश मिला।
जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव 2024 में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन ने 48 सीटें जीतीं। जबकि, बीजेपी ने 29 सीटों पर कब्जा किया। वहीं, महबूबा मुफ्ती की पीडीपी को सिर्फ 3 सीटें मिलीं। जबकि अन्य छोटी पार्टियों ने 10 सीटें हासिल कीं। यदि अलग अलग सीटों की बात की जाए तो नैशनल कॉन्फ्रेंस को 42 और कांग्रेस को 6 सीटें मिलीं। जबकि जेपीसी को 1, सीपीआई एम को 1, आम आदमी पार्टी को 1 और निर्दलीय को 7 सीटें मिली हैं। 
जहां तक इनके वोट प्रतिशत का सवाल है तो बीजेपी को 25.64 प्रतिशत, नैशनल कॉन्फ्रेंस को 23.43 प्रतिशत, कांग्रेस को 11.97 प्रतिशत, पीडीपी को 8.87, आम आदमी पार्टी को 0.52 प्रतिशत, बीएसपी को 0.96 प्रतिशत और जदयू को 0.13 प्रतिशत वोट मिले हैं। इस चुनाव में कुल 63.45 फीसदी वोटिंग हुई है। बता दें कि विधानसभा की 90 सीटों के लिए तीन चरणों में 18 सितंबर, 25 सितंबर और 1 अक्टूबर को मतदान हुए थे। 
ताजा चुनाव परिणाम से स्पष्ट होता है कि कभी भाजपा की करीबी रहीं पीडीपी नेत्री व पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को मतदाताओं ने खारिज कर दिया, ताकि वह भाजपा के साथ गठबंधन करने लायक ही नहीं बचें। उल्लेखनीय है कि साल 2014 में महबूबा मुफ्ती के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद और बीजेपी ने मिलकर पहली बार गठबंधन किया और जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाई। यह वो नाजुक वक्त था जब 10 साल बाद बीजेपी ने फिर पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र की सत्ता पर आसीन हुई थी। 
उसी समय लीक से हटकर बीजेपी ने पीडीपी से गठबंधन किया और चुनाव के बाद गठबंधन सरकार बनाई। हालांकि ये बेमेल सरकार रही। वहीं, मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद महबूबा मुफ़्ती सीएम बनीं। चूंकि पीडीपी का एजेंडा बीजेपी के एजेंडे से बिल्कुल मेल नहीं खा रहा था और घाटी में पत्थरबाजी आम हो चली थी। इसलिए बीजेपी ने पीडीपी प्रमुख महबूबा से अपना पीछा छुड़ाना ही उचित समझा और ताबड़तोड़ उचित फैसले लिए।
# भाजपा सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 हटने के बाद फारूक अब्दुल्ला व उमर अब्दुल्ला लगातार रहे हमलावर
साल 2014 से ही घाटी की राजनीति और जम्हूरियत का हवाला देने वाले फारूक अब्दुल्ला और उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला अपनी विचारधारा पर दृढ़ता से खड़े रहे। देखा गया कि भले ही वो अटलजी की सरकार में केंद्रीय मंत्री थे, एनडीए में भी शामिल थे, लेकिन इसके बावजूद वे नरेंद्र मोदी की सरकार की नीतियों पर लगातार मुखरित रहे। पूरे देश में राहुल गांधी और जम्मू-कश्मीर में फारुख अब्दुल्ला-उमर अब्दुल्ला अपनी मुखरता के लिए ही जाने-पहचाने गए। 
वहीं, जब 2019 में अनुच्छेद 370 और 35 (ए) हटाया गया, तो फारूक अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला ने ही इस पर मुखरता पूर्वक अपनी बात रखी। इससे पाक व चीन परस्त जम्मू-कश्मीर वासियों के हौसले बढ़े। बता दें कि साल 2014 में जम्मू-कश्मीर चुनाव से पहले अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस का ही राज था। तब उमर अब्दुल्ला ने कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर 5 जनवरी 2009 को गठबंधन सरकार बनाई थी।
वहीं, जब अगस्त 2019 में केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया। साथ ही जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा भी खत्म किया और इसे केंद्र शासित प्रदेश बना दिया। ये सब कुछ करने के बाद यह पूरा क्षेत्र उबल पड़ा, जिसके दृष्टिगत जम्मू-कश्मीर में कई महीनों तक विभिन्न प्रकार के प्रतिबंध लागू रहे। इन सबके बाद भी जब जम्मू कश्मीर में साल 2024 में विधानसभा चुनाव हुए तो नेशनल कॉन्फ्रेंस के अब्दुल्ला परिवार के पुनर्वापसी हुई, जबकि पीडीपी के महबूबा परिवार का सियासी सुफड़ा साफ हो गया।
# आखिर लोगों में महबूबा के प्रति क्यों दिखा भारी रोष
सवाल है कि जब भाजपा से गठबंधन तोड़ने के बाद महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी भी अब्दुल्ला परिवार की पार्टी नेशनल कांफ्रेंस की लाइन पर ही चल रही थी, तो फिर उनकी पीडीपी को विधानसभा की 90 सीटों में से महज 3 सीटें ही क्यों मिल पाईं। शायद इसलिए कि जब कश्मीर घाटी में युवाओं ने पत्थरबाजी कर आतंक मचा रखा था, तब महबूबा की भाषा ऐसी थी कि किसी को भी हैरान कर दे। तब जिस तरह से उनकी वक्तव्यों में पाकिस्तान के प्रति झुकाव स्पष्ट देखने को मिलता था, उससे भारत में आस्था रखने वाले कश्मीरी क्षुब्ध दिखते थे। यही वजह है कि जब चुनाव आए तो मतदाताओं ने उन्हें सिरे से ही खारिज कर दिया, जो उनके लिए भी सियासी अजूबे की तरह है।
# आखिर अब्दुल्ला परिवार की राजनीति को क्यों मिली 3 पीढ़ियों की विरासत
आपको पता होना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला के पिता और यहीं के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के दादा शेख अब्दुल्ला, जो देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मित्र समझे जाते थे, ने घाटी की सियासत में अहम भूमिका अदा की। सच कहूं तो शेख अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर की राजनीति के ‘पायोनियर’ थे। वे ऑल जम्मू और कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के संस्थापक थे। वो जम्मू और कश्मीर के भारत में विलय के बाद वहां के पहले निर्वाचित प्रधानमंत्री बने। 
यही वजह है कि पूर्व सीएम फारूक अब्दुल्ला को अपने पिता से राजनीति विरासत में मिली। उन्होंने भी भाजपा से गठबंधन किया, लेकिन अपनी शर्तों पर। इसप्रकार दशकों तक कश्मीर घाटी की मुखर आवाज रहने के बाद उन्होंने अपनी विरासत अपने बेटे उमर अब्दुल्ला को सौंप दी। बता दें कि साल 2009 से साल 2014 तक उमर अब्दुल्ला जम्मू- कश्मीर के सीएम रहे। दस साल बाद फिर उनकी सियासी किस्मत चमकी और वो यहां के अगले सीएम बनेंगे, क्योंकि उनकी पार्टी के गठबंधन को ही पूर्ण बहुमत मिला है।
# आखिर क्यों नहीं रहा कांग्रेस का अकेला वजूद, अब वह नेशनल कांफ्रेंस के साथ है गठबंधन साझीदार
आपको पता होना चाहिए कि देश पर सर्वाधिक समय तक राज करने वाली कांग्रेस की कभी जम्मू-कश्मीर में तूती बोलती थी। तब घाटी में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता गुलाम नबी आजाद ने भी जम्मू-कश्मीर में अपनी सरकार चलाई। हालांकि ग्रुप 23 के झांसे में आकर कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बनाने के बाद गुलाम नबी आजाद व उनके समर्थकों का भी राजनीतिक वजूद खत्म हो गया। इसी तरह कांग्रेस का भी स्वतंत्र पार्टी के रूप में वजूद खत्म हो गया। 
इस बार जम्मूकश्मीर विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने गुलाम नबी आजाद की घरवापसी के लिए पहल की, लेकिन राहुल गांधी के सख्त रवैये के चलते खड़गे बैक फुट पर चले गए। वहीं, नेशनल कॉन्फ्रेंस की सहयोगी पार्टी बनकर कांग्रेस 6 सीटें पाने में सफल रही। इस मामूली उपलब्धि के लिए भी राहुल गांधी  ने जम्मू और कश्मीर में कई रैलियां की। उधर, भारत जोड़ो यात्रा के दौरान भी उन्होंने अपनी ताकतवर मौजूदगी दिखाई थी। इसका असर यह रहा कि कांग्रेस को महज 6 सीटें मिल गईं।
# हिंदू बहुल जम्मू में दिखा भाजपा का जलवा
हिंदु बहुल जम्मू में बीजेपी का प्रदर्शन पहले के मुकाबले अच्छा रहा। पार्टी ने यहां 29 सीटें जीतीं। बता दें कि जम्मू रीजन में 43 सीटें पड़ती हैं। भाजपा 68 प्रतिशत की स्ट्राइक रेट के साथ ये सीटें हासिल की है, जो बड़ी बात है।
इस तरह बीजेपी पूरे जम्मू-कश्मीर की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। वहीं, कश्मीर घाटी में बीजेपी एक भी सीट नहीं जीत सकी। 2014 के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी ने अपनी सभी 25 सीटें जम्मू में ही जीती थीं। तब भी कश्मीर में उसे एक भी सीट नहीं मिली थी।
हालांकि इस बड़ी जीत के लिए यहां पीएम मोदी और केंद्रीय मंत्री अमित शाह सहित तमाम बड़े नेताओं और मंत्रियों की रैलियां हुईं। इसके बावजूद भी जम्मू के बाहर भाजपा को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई। समझा जाता है कि जम्मू के हिंदुओं ने आतंक का दंश झेला है। अनुच्छेद 370 हटने पर पीडीपी और नेकां के बयानों को भी सुना है। इसलिए जब चुनाव आए तो हिंदुओं ने बीजेपी के पक्ष में जमकर वोट डाले। इससे बीजेपी का सियासी ग्राफ भी ऊंचा उठा। 
बता दें कि जम्मू-कश्मीर में अपना पहला मुख्यमंत्री बनाने के लिए बीजेपी को अकेले जम्मू में ही कम से कम 30 से 35 सीटें जीतना जरूरी था। जबकि, घाटी में भी उसे अच्छा प्रदर्शन करना था। हालांकि, ऐसा हो नहीं सका। ऐसे में सवाल उठता है कि अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले और ‘नया कश्मीर’ का वादा करने वाली बीजेपी को चुनावी फायदा क्यों नहीं मिला? 
# मोदी शाह ने जम्मू-कश्मीर की किस्मत बदली पर सांप्रदायिक मिजाज वाली जनता को समझा नहीं पाए
जम्‍मू-कश्‍मीर चुनाव परिणाम ने प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी की छवि को और सशक्त किया है। वैश्विक स्‍तर पर भारत के लोकतंत्र की मजबूती और जम्मू-कश्मीर को लेकर संदेश गया है कि यह भारत का अभिन्न हिस्सा है। वहीं, कश्‍मीर में भाजपा की सीटों में वृद्धि और हार दोनों केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के लिए अहम हैं। क्योंकि धारा 370 हटाने के बाद उन्होंने राज्‍य को प्रभावी रूप से संभाला। फिर भी भाजपा जम्‍मू-कश्‍मीर में सरकार बनाने में असफल हुई। यानी कि वहां भाजपा की स्वीकार्यता अभी भी सीमित है। कश्मीर में समुदाय का भाजपा पर भरोसा अभी मजबूत नहीं हुआ है।
# अपनी सूझबूझ और पिता के आशीर्वाद से उमर अब्दुल्ला निकले जनता के भरोसेमंद
साल 2014 में सत्ता खोने और 2019 में राज्य का विशेष दर्जा खत्म होने के बाद हुए इस चुनाव में उमर अब्दुल्ला और उनकी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस ने शानदार वापसी की है। इससे साबित होता है कि कठिन राजनीतिक परिस्थितियों में भी वह एक संतुलित नेता के रूप में उभरे हैं। कश्‍मीर की जनता ने अब्दुल्ला पर भरोसा जताया है। उमर अब्दुल्ला ने कहा कि मैं बडगाम के मतदाताओं का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं, जिन्होंने मुझे अपने कीमती वोटों से नवाजा, मुझे यहां से कामयाब बनाकर भेजा। 
उन्होंने बताया कि जेकेएनसी (JKNC) को पिछले 5 साल से खत्म करने की पूरी कोशिश की गई थी। यहां बहुत से ऐसे तंजीमें खड़ी गई जिनका मकसद था नेशनल कॉन्फ्रेंस को खत्म करना। हालांकि जो हमें खत्म करने के लिए आए थे मैदान में, उनका खुद ही कोई नामों-निशान नहीं रहा। लिहाजा, हमारी जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। हमारा फर्ज बनता है कि हम अपने आप को इन वोटों के लायक साबित करें। 
वहीं, नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रमुख फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलना चाहिए। हम इंडिया गठबंधन के साथ मिलकर इस मुद्दे को जोर-शोर से उठा रहे हैं। उधर, जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस की जीत को लेकर महबूबा मुफ्ती ने उन्हें बधाई दी और कहा कि राज्य की जनता शायद एक स्थिर सरकार चाहती थी। यही वजह है कि उन्होंने एनसी-कांग्रेस गठबंधन को चुना है. 
# महबूबा मुफ्ती को भुगतना पड़ा  पिता के फैसला का खामियाजा
महबूबा मुफ्ती को उनके पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद का एक दशक पहले भाजपा संग गठबंधन करने के फैसले का खामियाजा भुगतना पड़ा। इस चुनाव में जनता ने पीडीपी को दिल्‍ली की करीबी पार्टी माना और महबूबा मुफ्ती की पार्टी पर भरोसा नहीं किया। चुनाव परिणाम से संदेश मिला कि घाटी में जो भी राजनीतिक पार्टी भाजपा के करीब आती है, उसका चुनाव में मतदाता गर्मजोशी से स्वागत नहीं करेंगे। लिहाजा, महबूबा मुफ्ती के लिए यह समय पुनर्विचार का है कि दोबारा जनता का भरोसा कैसे जीता जाए। 
हालांकि, फारुख अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस भी भाजपा के करीब रही है, लेकिन उन्होंने चालाकी पूर्वक अपने पाले बदले, जो कि महबूबा नहीं कर सकीं। उधर, जेल से बाहर आते ही बारामूला सीट से सांसद इंजीनियर राशिद के बयानों ने हलचल मचा दी। वो टेरर फंडिंग के मामले में जेल में बंद थे। लेकिन जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों के प्रचार के लिए उनको 2 अक्टूबर तक अंतरिम जमानत दी गई थी। उन्होंने भी प्रचार किया।
# भाजपा को अलगाववादी विरोधी कार्रवाई भारी पड़ गई
भले ही बीजेपी ने ‘नया कश्मीर’ में सुरक्षा पर ज्यादा जोर दिया। उसके मातहत वाली सरकार ने आतंकवाद, अलगाववाद और पत्थरबाजी के खिलाफ सख्त कार्रवाई की, जिसका लोगों ने भी स्वागत किया। लेकिन दूसरी ओर ऐसा भी समझा गया कि अभिव्यक्ति की आजादी को दबाया जा रहा है। इसलिए जम्मू-कश्मीर में ये आम धारणा बनाई गई कि असहमति को दबाने के लिए डराया जा रहा है। इस कारण कश्मीर घाटी में बीजेपी वैसी नहीं उभर पाई, जैसी कि उसे उम्मीद की गई थी। 
इतना ही नहीं, कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बनाने के बाद बीजेपी ने स्थानीय लोगों की नाराजगी को खत्म करने के लिए उन्हें नौकरियों देने का वादा किया। साथ ही ये भी वादा किया कि सरकार कश्मीर में निवेश लेकर आएगी, जिससे नौकरियां पैदा होंगी। हालांकि, इन वादों पर इतना काम नहीं हुआ, जितना कि उससे अपेक्षा की गई। इससे उपजे अविश्वसनीय हालात ने भी जनता में नाराजगी बढ़ाई। 
 
बताया जाता है कि जब स्थिति थोड़ी सामान्य होने लगी तो मोदी सरकार ने विकास, नौकरियां और सुरक्षा के नाम पर ‘नया कश्मीर’ बनाने का वादा किया। लेकिन, अनुच्छेद 370 हटाने से लोगों को जो नुकसान हुआ, उसकी भरपाई करने की कोशिशें बहुत कम हुई। वहीं, दूसरी ओर फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस और महबूबा मुफ्ती की पीडीपी ने 370 को ‘कश्मीरी अस्मिता’ से जोड़ दिया। दोनों नेताओं ने भाजपा के इस कदम को कश्मीर विरोधी बताया। इसलिए ऐसा माना जाता है कि अब भी सिर्फ कश्मीर ही नहीं, बल्कि जम्मू की भी एक बड़ी आबादी 370 हटाने के खिलाफ है। 
वहीं, भले ही चुनावी फायदे के लिए बीजेपी ने अल्ताफ बुखारी की अपनी पार्टी और सज्जाद लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेंस जैसी पार्टियों के साथ गठबंधन कर नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी का दबदबा कम करने की कोशिश की। लेकिन, इन पार्टियों के साथ गठबंधन बीजेपी के लिए बहुत ज्यादा फायदेमंद साबित नहीं हुआ। जबकि, कड़वा सच यह भी है कि भाजपा ने यह चुनाव पूरी तरह से विकास के मुद्दे पर लड़ा। उसने जाति, पंथ और धर्म से ऊपर उठने की कोशिश की और इस चुनाव को एक नई संस्कृति दी। जम्मू-कश्मीर में कल्याणकारी योजनाएं सभी धर्मों के लोगों तक पहुंची। 
# समझिए, एलजी को क्यों मिला है 5 लोगों को नामांकित करने का अधिकार?
जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के तुरंत बाद 5 विधायकों एलजी द्वारा मनोनीत किया जाना है। क्योंकि जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के पास एक खास अधिकार है, जिसका प्रयोग करते हुए वे 5 लोगों को विधानसभा के लिए नॉमिनेट कर सकते हैंं। इस तरह जम्मूकश्मीर में विधायकों की कुल संख्या 95 हो जाएगी। उल्लेखनीय है कि अनुच्छेद 370 हटने के बाद जम्मू-कश्मीर रीऑर्गेनाइजेशन एक्ट 2019 के तहत विधानसभा में 5 विधायकों को एलजी नॉमिनेट कर सकते हैं। यह रूल महिलाओं, कश्मीरी पंडितों और पीओके के प्रतिनिधित्व के लिए लाया गया था। इसे जुलाई 2023 में संशोधित किया गया। बता दें कि लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा की ओर से विधानसभा के लिए पांच लोगों को नॉमिनेट किये जाने के बाद विधायकों की कुल संख्या 95 हो जाएगी और बहुमत का आंकड़ा बढ़कर 48 हो जाएगा। ऐसे में भाजपा सत्ता हासिल करने के लिए एनसी-कांग्रेस गठबंधन सरकार को निकट भविष्य में गिराने के लिए तमाम विकल्पों पर विचार कर सकती है। इसके साथ ही निर्दलीय उम्मीदवार किंगमेकर की भूमिका निभा सकते हैं। इसको लेकर भाजपा ने फील्डिंग सजानी शुरू कर दी है। भाजपा का दावा है कि लोगों ने विकास और शांति के लिए उसके दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए उन्हें वोट दिया है।
# जम्मू कश्मीर: आखिरी चुनाव 2014 में हुआ, क्या थे नतीजे
बता दें कि जम्मू-कश्मीर में आखिरी बार साल 2014 में विधानसभा चुनाव हुए थे। तब यहां की 87 सीटों में से पीडीपी ने 28 सीटें हासिल की थीं। वहीं, बीजेपी ने 25, नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 15 और कांग्रेस ने 12 सीटें पाई थीं। इससे उत्साहित बीजेपी और पीडीपी ने मिलकर सरकार बनाई और मुफ्ती मोहम्मद सईद मुख्यमंत्री बने थे। हालांकि, जनवरी 2016 में ही मुफ्ती मोहम्मद सईद का अकस्मात निधन हो गया। उसके बाद चार महीने तक यहां राज्यपाल शासन लागू रहा। बाद में भाजपा के समर्थन से ही उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती यहां की मुख्यमंत्री बनीं। लेकिन महबूबा के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी ये गठबंधन ज्यादा दिन तक नहीं चला। माना जाता है कि महबूबा के अड़ियल रवैये और राजनीतिक नासमझी की वजह से भाजपा ने 19 जून 2018 को पीडीपी से गठबंधन तोड़ लिया। इसके बाद जम्मू और कश्मीर राज्य में राज्यपाल शासन (राष्ट्रपति शासन) लागू हो गया। उसके बाद सितंबर 2024 में 10 साल बाद फिर से चुनाव हुए। इसमें भी पीडीपी ने अदूरदर्शी निर्णय लिए और राजनीतिक नक्शे से ही आउट हो गई।
– कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top