व्हाइट हाउस में पाकिस्तानी जनरल मुनीर के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के लंच के रणनीतिक इरादों को ऐसे समझिये

आधुनिक युग में शुरू से ही पश्चिमी देशों की योजना पूर्वी देशों पर शासन करने की रही है। उनकी इसी आपसी होड़ में प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध हो चुके हैं और तीसरा विश्वयुद्ध दस्तक दे रहा है। चूंकि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पश्चिमी देशों के नेतृत्व का कार्य अमेरिका ने चतुराई पूर्वक ब्रिटेन से ले लिया है, इसलिए पहले जो ब्रिटेन की सामरिक रणनीति रही, वही अब अमेरिका की रणनीति हो चुकी है। 
बताया जाता है कि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली जैसे देशों के गठबंधन नाटो के लिए पहले रूस, फिर चीन और अब भारत को काबू में रखने के लिए पाकिस्तान का इलाका रणनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है। यदि तिब्बत पर इनका कब्जा हो जाये तो सोने पे सोहागा मानिंद होगा।
चूंकि 1947 से पहले यह भारतीय भूभाग उनकी ज्यादातर रणनीतिक जरूरतें पूरी करता आया है, इसलिए 1947 में उन्होंने योजना बनाई कि अब सिर्फ पाकिस्तानी भूभाग ही उनकी सामरिक जरूरतें पूरी कर सकता है, इसलिए पाकिस्तान के साथ समझौते को पूरी तवज्जो दी जाए।

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मसलन, तब इसके पीछे उनकी सोच थी कि भविष्य में भारत के साथ समझौता न होने से पश्चिमी देशों को अपनी जरूरतें बदलने की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्योंकि खास तौर पर किसी भी बड़े युद्ध के समय उन्हें पाकिस्तान में हवाई अड्डों के इस्तेमाल की इजाजत मिलती रहेगी। यही वजह है कि समसामयिक अन्तर्विरोधी वैश्विक परिदृश्य में भारत जब अमेरिकी हितों के परिप्रेक्ष्य में खुद को नहीं ढाल पाया तो उन्होंने पुनः पाकिस्तान की ओर रुख किया। 
दरअसल, 1947 की एक गोपनीय ब्रिटिश रिपोर्ट में बताया गया है कि पाकिस्तान ब्रिटिश (अब अमेरिकी) हितों के लिए भारत से ज्यादा फायदेमंद था। यही वजह है कि पाकिस्तान का बनना ब्रिटेन के लिए एक बड़ी भू-राजनीतिक जीत थी। ऐसा इसलिए कि पाकिस्तान एक ऐसा देश था, जिसकी सीमा ईरान से 909 किमी, अफगानिस्तान से 2,640 किमी थी, जो तब सोवियत संघ के पास था, और तेल से लबालब भरे अरब देशों से भी नजदीक था। 
यही वजह है कि भारत की आजादी के एक साल के भीतर ही यानी 1948 में ब्रिटेन की चालबाजी से गिलगित-बाल्टिस्तान, जो जम्मू-कश्मीर का हिस्सा था, पाकिस्तान को मिल गया। इससे भारत का अफगानिस्तान और मध्य एशिया से संपर्क टूट गया और चीन के साथ 596 किमी की सीमा बनी। तब यदि भारतीय नेतृत्व दूरदर्शी होता तो इन गलतियों से बचते हुए निर्णायक पहल कर सकता था, लेकिन उसकी अदूरदर्शिता ही अब भारत के रणनीतिकारों की परेशानियों का सबब बन चुकी है।
चूंकि अब अमेरिका ने ब्रिटेन के वैश्विक हितों को भी अपने कब्जे में ले लिया है, जिसमें पाकिस्तान का निर्माण भी शामिल था। यही वजह है कि अमेरिका से पाकिस्तान की बगावत के बाद और चीनियों से नया प्रेम के पींगे बढ़ाने के बाद जब पश्चिमी एशिया, मध्य एशिया और दक्षिण पूर्वी एशिया पर अमेरिकी पकड़ निरंतर कमजोर होती जा रही है और चीन, रूस, भारत की पकड़ तेजी से बढ़ रही है तो विगत ढाई दशकों की गलती सुधारते हुए 2025 में, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पाकिस्तान के सबसे ताकतवर व्यक्ति, फील्ड मार्शल असीम मुनिर के साथ दोपहर का भोजन किया, जिसके रणनीतिक मायने स्पष्ट हैं।
पहला, दोनों देश दक्षिण एशिया की जियोपॉलिटिक्स पर अपनी गहरी पकड़ चाहते हैं। इसलिए अमेरिका के लिए पाकिस्तान की रणनीतिक स्थिति अब पहले से ज्यादा खास यानी अहम है। क्योंकि अफगानिस्तान से अमेरिकी पांव उखड़ चुके हैं और वहां पर चीन-रूस-भारत का दबदबा बढ़ रहा है। इधर, इजराइल और ईरान के बीच गत कई दिनों से युद्ध चल रहा है और ट्रंप खुलकर इसराइल का समर्थन कर रहे हैं। इसलिए अब अमेरिका को पाकिस्तान का साथ चाहिए, ताकि वह उसके सैन्य हवाई अड्डों का पुनः प्रयोग करते हुए अपने अंतरराष्ट्रीय सामरिक हितों को आगे बढ़ा सके।
दूसरा, विशेषज्ञ बताते हैं कि राष्ट्रपति ट्रंप और जनरल मुनीर की मुलाक़ात को केवल इसराइल-ईरान युद्ध के आईने में ही नहीं देखना चाहिए। बल्कि पाकिस्तान-अमेरिका के बीच इस बातचीत को अहम पाकिस्तानी खनिज सम्पदा पर अधिकार और क्रिप्टो के नज़रिए से भी देखा जाना चाहिए। क्योंकि कारोबारी राष्ट्रपति ट्रंप निजी तौर पर इन मामलों की डील में गहरी दिलचस्पी रखते हैं। चूंकि जनरल मुनीर इन मामलों पर बातचीत की हैसियत रखते हैं। यहाँ तक कि कश्मीर पर भी विवाद को वह पुनः सुलगा सकते हैं। इसलिए ट्रंफ के लिए अभी वो खास बने रहेंगे।
तीसरा, अमेरिका का नया पाकिस्तान प्रेम उसकी विकसित भारतीय दोस्ती के लिहाज से अप्रत्याशित है, जिसके दो महत्वपूर्ण मायने हो सकते हैं- पहला, या तो ट्रंप यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि अगर अमेरिका, ईरान में जंग में शामिल होता है तो पाकिस्तानी सेना की प्रतिक्रिया क्या होगी, क्या वह अपने सैन्य हवाई अड्डों के इस्तेमाल की इजाजत पुनः देगा? और दूसरा, या फिर ट्रंप पहले ही ईरान के परमाणु कार्यक्रम को नष्ट करने का फ़ैसला कर चुके हैं और पाकिस्तान की मदद चाहते हैं, क्योंकि उन्हें आशंका हैं कि चीन के प्रभाव में भी चल रहा पाकिस्तान उसे धोखा दे सकता है। इसलिए वह मुनीर की पूरी आवभगत में जुटे हुए हैं। 
चतुर्थ, जानकारों का कहना है कि यूँ तो अमेरिका के सीनियर अधिकारी अक्सर पाकिस्तानी सेना प्रमुख से मिलते रहते हैं, लेकिन व्हाइट हाउस में अमेरिकी राष्ट्रपति की ओर से मेहमाननवाज़ी असामान्य बात है। जिसके कई कारणों में एक बड़ा कारण इसराइल-ईरान युद्ध भी है।
इसलिए इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अमेरिका के महत्वपूर्ण पार्टनर भारत को चाहिए कि अब वह अमेरिका के नए पाकिस्तान प्रेम पर आवाज़ उठाए और चीन तथा रूस को भी सावधान कर दे। क्योंकि ट्रंप व्हाइट हाउस में पाकिस्तान के उसी फ़ील्ड मार्शल जनरल मुनीर से मिलते हैं, जिसे भारत पहलगाम आतंकवादी हमले का मास्टरमाइंड मानता है। हालाँकि भारत ने कभी आधिकारिक तौर पर कभी ऐसा बयान नहीं दिया है। 
पंचम, चूंकि राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल (2016-2020) में पाकिस्तान को दी जाने वाली सभी तरह की सैन्य मदद बंद कर दी थी। इसके साथ ही उन्होंने पाकिस्तान पर अफ़ग़ानिस्तान में आतंकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया था। लेकिन जब अपने दूसरे कार्यकाल (2025-2029) के दौरान ट्रंप ने पाकिस्तान की नेतृत्व क्षमता को बहुत मज़बूत बताया था, तो इसके मायने भारत को समझने चाहिए और उसी के अनुरूप अपनी नीतियां बदलनी चाहिए।
छठा, कूटनीतिक कोढ़ में खाज यह कि इसी महीने अमेरिका के सेंट्रल कमांड के प्रमुख जनरल माइकल कुरिला ने कहा था कि पाकिस्तान आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में अमेरिका का अभूतपूर्व सहयोगी रहा है। इसलिए अमेरिका और पाकिस्तान के संबंधों को भारत से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। उन्होंने यह बात गत मंगलवार को यूएस हाउस आर्म्ड सर्विसेज़ कमेटी की बैठक से पहले कही थी। तब जनरल कुरिला ने साफ-साफ कहा था कि भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों में तनाव की क़ीमत अमेरिका को पाकिस्तान के साथ अपने संबंधों से नहीं चुकानी चाहिए।
सातवां, पाकिस्तानी जनरल बड़े तेज होते हैं। वो महान यूरोपीय जर्मन रणनीतिकार बिस्मार्क की तरह दो गेंद हाथ में और तीन गेंद हवा में रखते हैं। अभी भले ही पाकिस्तान अमेरिका से अपना संबंध सुधारना चाहता है लेकिन चीन से संबंध ख़राब करने की क़ीमत पर नहीं। क्योंकि पाकिस्तान के साथ चीन का जो संबंध है, उसकी तुलना अमेरिका से नहीं हो सकती है। पाकिस्तान की रणनीतिक प्राथमिकता चीन है क्योंकि चीन पाकिस्तान की रक्षा और आर्थिक, दोनों ज़रूरतें पूरी कर रहा है। 
आठवां, चूंकि भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर भी मानते हैं कि, “हर उस रिश्ते को आगे बढ़ाना हमारा लक्ष्य है, जो हमारे हितों के अनुरूप हो और अमेरिका के साथ रिश्ता हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। अमेरिका में एक्स राष्ट्रपति हो या वाई, इससे हमारे संबंध तय नहीं होते।” स्वाभाविक है कि अमेरिका को इससे राहत मिली होगी। लेकिन ट्रंफ के बुलाने के बावजूद पीएम मोदी का कनाडा से अमेरिका न जाना इस बात का संकेत है कि भारत मध्य पूर्व में अपनी संतुलित कूटनीति को बनाए रखना चाहता है। चूंकि अमेरिका में ट्रंप के साथ मुलाकात से भारत की तटस्थ छवि को नुकसान पहुंच सकता था, इसलिए उसने स्पष्ट इनकार कर दिया। खासकर तब जब इजरायल और ईरान के बीच तनाव चरम पर है। भारत ने इजरायल के साथ अपने रक्षा सहयोग को मजबूत करते हुए भी यह सुनिश्चित किया है कि यह ईरान के साथ उसके संबंधों को प्रभावित न करे।
नवम, सवाल है कि जब पाकिस्तान के जुबान पर ईरान का समर्थन है, तो फिर क्या असीम मुनीर पर्दे के पीछे से  इजरायल-अमेरिका का सपोर्ट करके ईरान से अपना पुराना बदला चुका रहे हैं। क्योंकि एक ओर इजराइली विमान ईरान के परमाणु ठिकानों पर बमबारी कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर अमेरिका भी अपने युद्धपोतों और विमानों के साथ ईरान के परमाणु केंद्रों को नष्ट करने की तैयारी में है, इसी बीच मुनीर अमेरिका में पहुंचकर उसे सुकून दे रहे हैं। स्वाभाविक है कि इससे चीन व रूस की बेचैनी बढ़ी होगी।
दशम, जानकार बताते हैं कि ट्रंप और मुनीर की इस मुलाकात में कई मांगें उठीं हैं- पहला, अमेरिका-इजराइल युद्ध में मदद करना, दूसरा, पाकिस्तान के हवाई अड्डों का इस्तेमाल करने देना, तीसरा और सबसे जरूरी, ईरान जैसे कट्टरता फैलाने वाले मुस्लिम देश से दूरी रखना। बदले में, मुनिर ने उन्नत हथियार और जम्मू-कश्मीर में पश्चिमी मध्यस्थता की मांग की। वहीं, ट्रंफ के लिए शांति का नोबल पुरस्कार मांगकर उन्होंने उनका दिल जीत लिया।
कहना न होगा कि इस पूरे परिदृश्य पर भारत के सामरिक मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी ने माइक्रो ब्लॉगिंग साइट “एक्स” पर ठीक ही लिखा है कि, “पीएम मोदी के जी-7 समिट में कनाडा के अल्बर्टा पहुँचने से पहले राष्ट्रपति ट्रंप वापस चले गए। जबकि दोनों नेताओं की आमने-सामने की मुलाक़ात होनी तय थी। चूंकि इस मुलाक़ात पर मीडिया का ध्यान भी रहता, क्योंकि ट्रंप लगातार दावा करते रहे हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम में उनकी भूमिका रही है।” शायद इसलिए ट्रंम्फ चुपके से निकल लिए और अमेरिका से मोदी को कॉल करके मित्रवत/शत्रुवत दोनों औपचारिकता पूरी कर दी।
वहीं, दोनों चतुरसुजानों लंच से ठीक पहले हुए ट्रंफ-मोदी संवाद में भारत ने एक बार फिर स्पष्ट किया है कि वह किसी भी देश की मध्यस्थता स्वीकार नहीं करेगा, इससे उनके भोजन का स्वाद जरूर गड़बड़ा गया होगा। चूंकि पीएम मोदी कनाडा में जी-7 समिट में शामिल होने गए थे और यहीं ट्रंप से मुलाक़ात होनी थी, लेकिन ट्रंप पहले ही वापस चले गए थे। ऐसा इसलिए भी कि अमेरिका एक कारोबारी देश है। वहां की हथियार लॉबी यह तय करती है कि अमेरिका के सम्बन्ध किसके साथ कैसे होंगे। जो उनके हथियार खरीदकर उन्हें लाभ देगा, उसे दुलारा जाएगा, अन्यथा दुत्कार मिलेगी। इसलिए अब रूस का मित्र भारत उनके लिए महत्वहीन हो चला है।
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार बताते हैं कि अमेरिका एक खास रणनीति के तहत भारत के करीब आया था। वह यह कि भारत को रूस से दूर करके उसे अपने हथियार बेचे जाएंगे। वहीं, चीन से भारत को भिड़ाकर क्षेत्र में हथियारों की होड़ पैदा की जाएगी। इसके अलावा, भारत के पास-पड़ोस को अशांत कर ढेर सारा हथियार बेचा जाएगा। लेकिन अमेरिका की पुरानी रीति-नीति से सतर्क भारत ने सूझबूझ का परिचय देते हुए रूस के साथ अपनी मित्रता बरकरार रखी। चीन से भी भारत ने जरूरत भर ही रार ठानी। जबकि दक्षिण चीन सागर विवाद और तिब्बत (चीन)-भारत संघर्ष के हालात पैदा करके अमेरिका न केवल चीन को कमजोर करना चाहता था, बल्कि भारत को भी युद्ध के बहाने अपने अधीन लाना चाहता था। लेकिन भारत के सतर्क रवैये की बात अमेरिका को नागवार गुजरी। 
इसलिए जब भारत रूस-यूक्रेन युद्ध, इजरायल-फिलिस्तीन युद्ध, भारत-चीन युद्ध में नहीं फंसा तो उसे घेरने के लिए पाकिस्तान को आगे करके पहलगाम आतंकी हिंसा को अंजाम दिलवाया गया। इससे क्रोधित भारत ने जब ऑपरेशन सिंदूर का आगाज करके पाकिस्तान की बैंड बजा दी, तो अमेरिका-चीन को अपनी कमजोर जमीन का एहसास हुआ। उसके बाद अमेरिका भारत का विरोधी हो  गया, चीन तो पहले से था ही।
# समझिए, अमेरिका के पाकिस्तान प्रेम का असली आशय
यूँ तो अमेरिका दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र है, लेकिन उसे तानाशाहों के साथ काम करना पसंद है। कहा जाता है कि राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने एक तानाशाह के बारे में कहा था, ‘वह बुरा है, लेकिन हमारा बुरा है।’ यही वजह है कि तब पाकिस्तान की सेना उसे अमेरिका के करीब लाई। दरअसल, शीत युद्ध में भारत और अमेरिका अलग-अलग खेमों में थे, लेकिन 1958 में जनरल अयूब खान के तख्तापलट के बाद पाकिस्तान अमेरिका का साथी बन गया। तब से कहा जाने लगा कि सेना, अल्लाह और अमेरिका, ये तीन चीजें पाकिस्तान को चलाती हैं। कहने का तातपर्य यह कि पाकिस्तान एक ऐसा देश है जो खुद को अमेरिका को किराए पर देता रहा है।
इसलिए ट्रम्प और मुनीर की ताजा मुलाकात से यह समझा जा सकता है कि कैसे कंगाल पाकिस्तान फिर से अमेरिका का पसंदीदा बन गया। इसके बाद उसे पश्चिमी देशों के आईएमएफ और विश्व बैंक से मदद मिली और आतंकवाद पर नजर रखने वाली सूची से हटा दिया गया। वहीं,  अमेरिका का पाकिस्तान की तरफ झुकाव नई दिल्ली को यह बताता है कि पश्चिम ने पाकिस्तान के आतंकवाद की निंदा क्यों नहीं की, जिसके कारण 22 मई को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में भारतीय पर्यटकों का कत्ल हुआ।
समझा जाता है कि पाकिस्तानी तानाशाह हमेशा वैश्विक संकटों का फायदा उठाते हैं। 1979 में जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर हमला किया, तब जनरल जिया-उल-हक ने पाकिस्तान को पश्चिम का अहम सहयोगी बनाया। वहीं, 2001 में जब अल-कायदा ने अमेरिका पर हमला किया, जनरल मुशर्रफ तालिबान और अल-कायदा के खिलाफ अमेरिका के सहयोगी बन गए, हालांकि इन संगठनों को उनकी सेना ने ही बनाया और समर्थन दिया था। 
इसी प्रकार गत 7 अक्टूबर, 2023 को हमास के इजराइल पर हमले के बाद अब इजराइल ने ईरान पर हमला किया है। यहीं पर मुनीर और उसका देश फिर से महत्वपूर्ण हो गया है। पिछले दो मौकों पर पाकिस्तान की सेना को फायदा हुआ, लेकिन देश को लंबे समय तक नुकसान झेलना पड़ा। पाकिस्तान की सेना इसे जोखिम के रूप में देखती है, क्योंकि यह भारत के खिलाफ उनके युद्ध में मदद करता है।
बताया जाता है कि 1979 में, पश्चिम ने जिया के परमाणु हथियारों की अनदेखी की, क्योंकि वह उनके लिए जरूरी था। 1980 के दशक में पाकिस्तान ने परमाणु हथियार बनाए। जब अमेरिका ने अफगानिस्तान से समर्थन वापस लिया, तो पाकिस्तान की सेना ने अमेरिका से मिले हथियारों को पंजाब और जम्मू-कश्मीर में इस्तेमाल किया। मुशर्रफ ने आतंकवादियों और परमाणु हथियारों को मिलाकर भारत को आतंक से कमजोर करने और जवाबी कार्रवाई पर परमाणु हमले की धमकी देने की रणनीति बनाई।
स्वाभाविक है कि जब अमेरिका पाकिस्तानी तानाशाहों का समर्थन करता है, तो वे खुद को बहुत बड़ा समझने लगते हैं। यही मुनीर के साथ हुआ, जब उन्होंने 16 अप्रैल को ‘दो राष्ट्र’ वाला भड़काऊ भाषण दिया, जिसके छह दिन बाद 22 अप्रैल को पहलगाम में भारतीय पर्यटकों का नरसंहार हुआ।मुनिर यहां तक बढ़ गए कि 12 मई को भारत ने मिसाइलों से पाकिस्तानी सैन्य ठिकानों को नष्ट कर दिया। इसके अलावा, प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान के परमाणु ब्लैकमेल को चुनौती दी और आतंकवादियों व सरकार के बीच फर्क खत्म कर दिया। पाकिस्तान की सेना ने 12 मई को युद्धविराम मांगा, जिसे भारत ने मान लिया। मुनिर ने खुद को फील्ड मार्शल घोषित कर जीत का दावा किया। अब वाशिंगटन में, मुनीर ट्रम्प के साथ अपनी बड़ी मुलाकात का जश्न मना रहे हैं।
– कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

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